सीजेआई गवई पहली बार महाराष्ट्र दौरे पर, प्रोटोकॉल में चूक पर जताई नाराजगी

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भावुक हुए मुख्य न्यायाधीश, कहा – ‘संविधान सर्वोच्च है, न मैं पद लूंगा, न सेवा से हटूंगा’

मुंबई: भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति भूषण रामकृष्ण गवई ने महाराष्ट्र और गोवा बार काउंसिल द्वारा आयोजित राज्य स्तरीय वकील सम्मेलन में भाग लेते हुए राज्य सरकार के प्रोटोकॉल उल्लंघन पर नाराजगी जताई। उन्होंने कहा कि देश के मुख्य न्यायाधीश के रूप में यह उनकी पहली महाराष्ट्र यात्रा थी, लेकिन राज्य के शीर्ष प्रशासनिक अधिकारी मुख्य सचिव, पुलिस महानिदेशक और मुंबई पुलिस आयुक्त समारोह में अनुपस्थित रहे, जो न केवल प्रोटोकॉल का उल्लंघन है, बल्कि संवैधानिक संस्थाओं के आपसी सम्मान का भी प्रश्न है।

कार्यक्रम में भावुक नजर आए सीजेआई गवई ने कहा, “पिछले चार दशकों से जो प्रेम और सम्मान मिला, उसका चरम आज इस समारोह में देखने को मिला। यह क्षण मेरे जीवन का अविस्मरणीय हिस्सा बन गया है।”

न्यायमूर्ति गवई ने अपने संघर्षों की कहानी साझा करते हुए बताया कि उन्होंने अमरावती की झोपड़पट्टी में रहते हुए नगर निगम स्कूल से शिक्षा प्राप्त की और वास्तुकला में रुचि रखने के बावजूद पिता की इच्छा के अनुसार कानून की पढ़ाई की। उन्होंने कहा, “मेरे पिता संविधान से गहरा प्रेम करते थे, और वही प्रेम मेरे भीतर भी बचपन से विकसित हुआ।”

मुख्य न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि वे सेवानिवृत्ति के बाद कोई पद स्वीकार नहीं करेंगे और आम नागरिकों के लिए सदैव उपलब्ध रहेंगे। उन्होंने कहा, “संविधान सर्वोच्च है न संसद, न कार्यपालिका, न ही न्यायपालिका इससे ऊपर हैं। संसद संशोधन कर सकती है, लेकिन मूल ढांचे को नहीं बदल सकती।”

नागपुर पीठ के दिनों को याद करते हुए उन्होंने कहा कि एक समय उन्हें सरकारी वकील बनने में संकोच था, लेकिन बाद में उन्हें गरीबों के हक की लड़ाई लड़ने का अवसर मिला।

उन्होंने यह भी बताया कि कैसे सुप्रीम कोर्ट भवन समिति में रहते हुए उन्होंने डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर की प्रतिमा लगाने का सुझाव दिया, जो अब साकार हो चुका है।

समारोह में गवई ने कहा कि लोकतंत्र के तीनों स्तंभ – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका – देश में सामाजिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए कटिबद्ध हैं। देश के सुदूर इलाकों तक पहुँचने की अपनी कोशिशों का जिक्र करते हुए उन्होंने पूर्वोत्तर राज्यों के दौरे को भी महत्वपूर्ण बताया।

अंत में उन्होंने कहा कि यदि किसी अन्य संवैधानिक पदाधिकारी के साथ ऐसा व्यवहार होता, तो यह गंभीर चर्चा का विषय बनता। छोटे दिखने वाले इन व्यवहारों का भी लोकतांत्रिक मूल्यों पर प्रभाव पड़ता है और इनका सम्मान आवश्यक है।