धनबाद/गिरिडीह, 17 जुलाई 2025: झारखंड के गिरिडीह जिले में फर्जी जाति प्रमाण पत्र का एक बड़ा मामला उजागर हुआ है। जाति जांच समिति ने राजगंज थाना प्रभारी अलीशा कुमारी उर्फ अलीशा अग्रवाल के जाति प्रमाण पत्र को अवैध घोषित कर रद्द कर दिया। इस कार्रवाई ने प्रशासनिक गलियारों में हलचल मचा दी है और अधिकारियों के बीच सनसनी फैल गई है।
शिकायत से शुरू हुई जांच
बोकारो के निवासी प्रदीप कुमार रे ने अलीशा कुमारी के जाति प्रमाण पत्र की वैधता पर सवाल उठाते हुए शिकायत दर्ज की थी। इसके बाद समिति ने गहन पड़ताल शुरू की। जांच में सामने आया कि अलीशा द्वारा पेश किए गए दस्तावेज और वास्तविक स्थिति में कई विसंगतियां थीं। समिति ने गिरिडीह के डुमरी थाना क्षेत्र के जामताड़ा गांव में उनके दावे वाले पते का निरीक्षण किया, जहां उनका मकान ताला बंद मिला। स्थानीय लोगों ने बताया कि अलीशा के पिता भुवनेश्वर प्रसाद अग्रवाल लगभग तीन दशक पहले डुमरी में कोयला व्यापार के लिए आए थे। उन्होंने वहां एक मकान बनाया, जिसे किराए पर देकर वे बिहार के नवादा जिले में बस गए हैं।
प्रमाण पत्र कैसे हासिल किया गया?
अलीशा कुमारी ने झारसेवा पोर्टल पर रजिस्ट्री दस्तावेज (केवाला संख्या-1932, दिनांक 22-10-1986), 2015-16 की लगान रसीद और स्व-घोषणा पत्र जमा कर जाति प्रमाण पत्र के लिए आवेदन किया था। जामताड़ा पंचायत में मुखिया, वार्ड सदस्यों और ग्रामीणों की उपस्थिति में आयोजित सभा में उन्होंने दावा किया था कि वे 1976 से झारखंड की निवासी हैं। इस आधार पर डुमरी के तत्कालीन अनुमंडल अधिकारी के लॉगिन से 16 मार्च 2017 को उनका जाति प्रमाण पत्र (संख्या: जेएचसीसी/2017/229784) जारी किया गया था।
समिति की सुनवाई और फैसला
विस्तृत जांच के बाद 23 मई 2025 और 2 जुलाई 2025 को अलीशा कुमारी और शिकायतकर्ता प्रदीप कुमार रे अपने वकीलों के साथ समिति के सामने पेश हुए। सुनवाई के दौरान अलीशा झारखंड के पिछड़ा वर्ग संघ से अपनी संबद्धता सिद्ध करने में असफल रहीं। दस्तावेजों और तथ्यों की समीक्षा के बाद समिति के अध्यक्ष और सरकारी सचिव ने उनके जाति प्रमाण पत्र को रद्द करने का आदेश दिया।
अलीशा कुमारी का पक्ष
इस पूरे मामले पर अलीशा कुमारी ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “मुझे इस मामले की कोई जानकारी नहीं है। यदि आपके पास कोई पुख्ता सबूत या दस्तावेज हैं, तो कृपया साझा करें।”
प्रशासन में उठे सवाल
इस घटना ने सरकारी तंत्र में कई सवाल खड़े कर दिए हैं। लोग पूछ रहे हैं कि इस तरह के फर्जी दस्तावेज इतने लंबे समय तक कैसे वैध रहे और उनकी जांच में इतना विलंब क्यों हुआ। यह प्रकरण प्रशासनिक प्रक्रियाओं में सख्ती और पारदर्शिता की मांग को रेखांकित करता है।